सुप्रीम कोर्ट ने अली खान महमूदाबाद को दी अंतरिम जमानत: ऑपरेशन सिंदूर मामला
21 मई, 2025 को, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को एक महत्वपूर्ण मामले में अंतरिम जमानत प्रदान की। यह मामला उनके फेसबुक पोस्ट से संबंधित है, जिसमें उन्होंने भारत की सैन्य कार्रवाई “ऑपरेशन सिंदूर” पर टिप्पणी की थी। हालांकि, कोर्ट ने इस मामले में दर्ज दो प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) को स्थगित करने से इनकार कर दिया। इस लेख में, हम इस मामले के सभी पहलुओं, इसके पृष्ठभूमि, कानूनी कार्रवाइयों, और इसके व्यापक प्रभावों पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
मामले की पृष्ठभूमि
अली खान महमूदाबाद, जो हरियाणा के सोनीपत में स्थित अशोका विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख और सहायक प्रोफेसर हैं, को 18 मई, 2025 को हरियाणा पुलिस ने दिल्ली में उनके घर से गिरफ्तार किया था। उनकी गिरफ्तारी का कारण उनके सोशल मीडिया पोस्ट थे, जिनमें उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर पर टिप्पणी की थी। ऑपरेशन सिंदूर भारत की सैन्य कार्रवाई थी, जो 22 अप्रैल को पहलगाम में हुए आतंकी हमले के जवाब में शुरू की गई थी, जिसमें 26 लोगों की जान गई थी। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना ने पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में आतंकी ठिकानों पर हमला किया था।
महमूदाबाद के फेसबुक पोस्ट में उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के संदर्भ में कई बिंदुओं पर टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था कि इस ऑपरेशन के माध्यम से भारत ने पाकिस्तान को यह संदेश दिया कि, “यदि आप अपने आतंकवाद की समस्या से निपटने में विफल रहते हैं, तो हम इसे करेंगे!” इसके अलावा, उन्होंने युद्ध की वकालत करने वालों की आलोचना की, यह कहते हुए कि युद्ध दोनों पक्षों के लिए नागरिकों के जीवन को नष्ट करता है और इसे टाला जाना चाहिए। उन्होंने युद्ध के दुष्परिणामों पर भी प्रकाश डाला, यह उल्लेख करते हुए कि यह मुख्य रूप से राजनेताओं और रक्षा उद्योगों को लाभ पहुंचाता है।
उनके पोस्ट में विशेष रूप से कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह, जो ऑपरेशन सिंदूर की प्रेस ब्रीफिंग का हिस्सा थीं, के संदर्भ में टिप्पणी की गई थी। महमूदाबाद ने कहा था कि इन महिला अधिकारियों को प्रेस ब्रीफिंग में शामिल करना एक “ऑप्टिक्स” (प्रतीकात्मक छवि) का हिस्सा है, और यदि यह जमीन पर वास्तविक बदलाव में नहीं बदलता, तो यह केवल पाखंड है। उन्होंने दक्षिणपंथी समर्थकों से यह भी अपील की थी कि वे मॉब लिंचिंग और संपत्तियों के मनमाने ढंग से ध्वस्तीकरण के पीड़ितों के लिए भी आवाज उठाएं।
“युद्ध के कारण विशेष रूप से गरीबों को भारी नुकसान होता है। जो लोग युद्ध की वकालत कर रहे हैं, उन्होंने कभी युद्ध को करीब से नहीं देखा और न ही किसी संघर्ष क्षेत्र में समय बिताया है।” – अली खान महमूदाबाद
कानूनी कार्रवाई और गिरफ्तारी
महमूदाबाद के पोस्ट को लेकर दो अलग-अलग एफआईआर दर्ज की गई थीं। पहली शिकायत हरियाणा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया ने दर्ज की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि महमूदाबाद की टिप्पणियों ने भारतीय सशस्त्र बलों की महिला अधिकारियों का अपमान किया और उनकी भूमिका को कमतर आंका। दूसरी शिकायत योगेश जठेरी नामक एक स्थानीय भाजपा युवा मोर्चा नेता और गांव के सरपंच ने दर्ज की थी। इन एफआईआर में भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 196 (नफरत को बढ़ावा देना), 197 (राष्ट्रीय एकीकरण के लिए हानिकारक दावे), 152 (राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालना), और 299 (आपराधिक हत्या) के तहत आरोप लगाए गए थे।
12 मई को हरियाणा राज्य महिला आयोग ने महमूदाबाद को एक नोटिस जारी किया था, जिसमें उनकी टिप्पणियों को महिला अधिकारियों के खिलाफ अपमानजनक बताया गया था। इसके बाद, 18 मई को हरियाणा पुलिस ने उन्हें दिल्ली में उनके घर से गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद, उन्हें दो दिन की पुलिस हिरासत में भेजा गया, और बाद में सोनीपत की एक अदालत ने उन्हें 27 मई तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप
महमूदाबाद ने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। 19 मई को, उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट में तत्काल सुनवाई की मांग की, जिसे कोर्ट ने स्वीकार कर लिया। 21 मई को, जस्टिस सूर्या कांत और जस्टिस एन. कोटिस्वर सिंह की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने महमूदाबाद को अंतरिम जमानत प्रदान की, लेकिन दोनों एफआईआर की जांच को स्थगित करने से इनकार कर दिया।
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि अंतरिम जमानत केवल जांच को सुविधाजनक बनाने के लिए दी जा रही है। महमूदाबाद को सोनीपत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) के समक्ष एक ही जमानत बांड जमा करने का निर्देश दिया गया, जो दोनों एफआईआर के लिए मान्य होगा। इसके अलावा, कोर्ट ने उनके पासपोर्ट को CJM के समक्ष जमा करने का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने महमूदाबाद के पोस्ट में इस्तेमाल किए गए शब्दों पर कड़ी आपत्ति जताई। जस्टिस सूर्या कांत ने कहा कि उनके शब्दों में “दोहरे अर्थ” हो सकते हैं और इसे कानून में “डॉग-व्हिसलिंग” के रूप में जाना जाता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यद्यपि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन महमूदाबाद को अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में अधिक सावधानी बरतनी चाहिए थी।
“हर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, लेकिन कर्तव्य कहां है? ऐसा लगता है जैसे पिछले 75 वर्षों में देश केवल अधिकार बांटता रहा है और कर्तव्यों की कोई बात नहीं करता।” – जस्टिस सूर्या कांत
कोर्ट ने महमूदाबाद को यह भी निर्देश दिया कि वे इस मामले से संबंधित कोई और ऑनलाइन पोस्ट, लेख, या भाषण नहीं देंगे। इसके अलावा, उन्हें पहलगाम आतंकी हमले या भारत की जवाबी कार्रवाई पर कोई टिप्पणी करने से भी रोक दिया गया।
विशेष जांच दल (SIT) का गठन
सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के पुलिस महानिदेशक (DGP) को निर्देश दिया कि वे इस मामले की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय विशेष जांच दल (SIT) का गठन करें। इस दल में वरिष्ठ IPS अधिकारियों को शामिल किया जाएगा, जिनमें से एक महिला अधिकारी होगी, और ये अधिकारी हरियाणा या दिल्ली से बाहर के होंगे। SIT को इस मामले की गहन जांच करने और महमूदाबाद के पोस्ट में इस्तेमाल किए गए शब्दों के उपयोग की जांच करने का निर्देश दिया गया है।
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि जांच के दौरान कोई और आपत्तिजनक सामग्री मिलती है, तो राज्य सरकार को इसे रिकॉर्ड पर लाने की स्वतंत्रता होगी। इस कदम को मामले की निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है।
अशोका विश्वविद्यालय और अन्य प्रतिक्रियाएं
अशोका विश्वविद्यालय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया और एक बयान जारी कर कहा, “हम प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अंतरिम जमानत दिए जाने से राहत महसूस कर रहे हैं और उत्साहित हैं। यह उनके परिवार और अशोका विश्वविद्यालय के सभी लोगों के लिए बहुत सांत्वना देने वाला है।” विश्वविद्यालय के संकाय संघ ने भी महमूदाबाद का समर्थन किया और उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों को निराधार बताया।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी इस मामले में संज्ञान लिया और हरियाणा पुलिस से एक सप्ताह के भीतर इस गिरफ्तारी पर एक रिपोर्ट मांगी। NHRC ने संभावित मानवाधिकार उल्लंघन का हवाला देते हुए यह कदम उठाया। यह नोटिस सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम जमानत के आदेश के कुछ घंटों बाद जारी किया गया था।
महमूदाबाद के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और सिद्धार्थ लूथरा ने कोर्ट में तर्क दिया कि उनके मुवक्किल के पोस्ट में कोई आपराधिक मंशा नहीं थी और न ही वे सांप्रदायिक तनाव पैदा करने के इरादे से लिखे गए थे। सिब्बल ने यह भी उल्लेख किया कि महमूदाबाद की पत्नी नौ महीने की गर्भवती हैं, जिसे कोर्ट ने ध्यान में रखा।
मामले का व्यापक प्रभाव
यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक मीडिया पर व्यक्तिगत विचारों को व्यक्त करने की सीमाओं, और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा करने के जोखिमों को लेकर एक महत्वपूर्ण बहस को जन्म देता है। महमूदाबाद के पोस्ट, हालांकि कुछ लोगों द्वारा आलोचनात्मक और विचारोत्तेजक माने गए, को हरियाणा पुलिस और अन्य शिकायतकर्ताओं ने राष्ट्र की संप्रभुता और एकता के लिए खतरा माना।
सुप्रीम कोर्ट का “डॉग-व्हिसलिंग” वाला बयान इस बात की ओर इशारा करता है कि कुछ शब्दों या वाक्यांशों का उपयोग जानबूझकर या अनजाने में गलत अर्थ निकालने के लिए किया जा सकता है। यह एक महत्वपूर्ण कानूनी अवधारणा है, जो सामाजिक मीडिया के युग में और अधिक प्रासंगिक हो जाती है, जहां संदेशों को आसानी से गलत समझा जा सकता है या संदर्भ से हटकर व्याख्या की जा सकती है।
इसके अलावा, यह मामला भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे और कर्तव्यों के बीच संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों का पालन करना भी महत्वपूर्ण है। यह एक ऐसा संदेश है जो न केवल महमूदाबाद के लिए, बल्कि सभी नागरिकों के लिए प्रासंगिक है जो सार्वजनिक मंचों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं।
निष्कर्ष
अली खान महमूदाबाद का मामला भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक मीडिया, और राष्ट्रीय सुरक्षा के बीच जटिल रिश्ते को दर्शाता है। सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम जमानत का फैसला और जांच को जारी रखने का आदेश इस मामले की संवेदनशीलता और गंभीरता को दर्शाता है। विशेष जांच दल (SIT) की नियुक्ति और महमूदाबाद पर लगाए गए प्रतिबंध यह सुनिश्चित करने के लिए हैं कि जांच निष्पक्ष और पारदर्शी हो।
यह मामला हमें यह भी याद दिलाता है कि सामाजिक मीडिया पर व्यक्त विचारों का व्यापक प्रभाव हो सकता है, और हमें अपने शब्दों का चयन सावधानी से करना चाहिए। अशोका विश्वविद्यालय और उनके समर्थकों के लिए यह फैसला एक राहत की बात है, लेकिन जांच का परिणाम अभी बाकी है। इस मामले का भविष्य न केवल महमूदाबाद के लिए, बल्कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण होगा।
क्या आप इस मामले के बारे में अपने विचार साझा करना चाहेंगे? नीचे टिप्पणी करें और हमें बताएं कि आप इस फैसले और इसके प्रभावों को कैसे देखते हैं।
स्रोत: Bar and Bench, LiveLaw, The Hindu, Hindustan Times